बिहारभाषा-साहित्य

करना सफ़र नहीं है आसान ज़िन्दगी में – सुनीता ‘सुमन’

ग़ज़ल

सुनीता ‘सुमन’

मैं हो के रह गई हूं हैरान ज़िंदगी में ।
आएंगे और कितने तूफान ज़िंदगी में ।।

आए हो जब से बन कर मेहमान ज़िंदगी में ।
मेला सा लग गया है सुनसान ज़िंदगी में ।।

मय्यत उठाए ख़ुद की फिरते हैं दर ब दर हम ।
करना सफ़र नहीं है आसान ज़िंदगी में ।।

मुश्किल न कोई आए ग़म भी न कोई आए ।
खुशियों से आपकी हो पहचान ज़िंदगी में ।।

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शंकर न बन सकी मैं पी कर के विष का प्याला ।
सौ बार कर चुकी हूं रसपान ज़िंदगी में ।।

ग़म का लगा है मेला किस्मत बनी मदारी ।
ख़ुशियां न बन सकी हैं मेहमान ज़िंदगी में ।।

सबके दिलों में डेरा यूं ही नहीं जमाया ।
करनी पड़ी है ख़ुशियां कुर्बान ज़िंदगी में ।।

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अपनी ही कब्र पर हम कब तक बहाएं आंसू ।
जलते रहेंगे कब तक अरमान ज़िंदगी में ।।

इक आरज़ू ‘सुमन’ है बस एक ही तमन्ना ।
देना ख़ुशी हर इक को भगवान ज़िंदगी में ।।

सुनीता ‘सुमन’, पोखरिया, बेगूसराय.

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