दरभंगा : सांस्कृतिक चेतना, साहित्यिक प्रबोधन और लोकसंस्कृति के समन्वय का प्रतीक बन चुका “सद्गृहस्व संत जगनाथ चौधरी पुण्य-पर्व समारोह” का 2025 संस्करण! इस बार भी यह भव्यता, गरिमा और भावनात्मक गहराई से परिपूर्ण रहा। जय-राम शोध सस्थान, सुल्तानपुर द्वारा 24 अप्रैल को आयोजित यह वार्षिक आयोजन न केवल संत जगन्नाथ चौधरी की पुण्य-स्मृति को सम्मानित करने का माध्यम बना, बल्कि इसने शोध, कविता, नाटक और लोकसंस्कृति के विविध पक्षों को सजीव मंच प्रदान किया।
आरंभिक विधियांः श्रद्धांजलि और पर्यावरणीय संदेश
समारोह की शुरुआत संत जगन्नाथ चौधरी की समाधि स्थल पर पुष्पांजलि के साथ हुई। ‘जगन्नाथ स्मृति’ में उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उपस्थितजनों ने पुण्य आत्मा को श्रद्धांजलि दी। इसके उपरांत, डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’ की अध्यक्षता और मुख्य अतिथि श्री महेंद्र मलंगिया की उपस्थिति में ऑवला और बेल का पौधा रोपकर पर्यावरणीय चेतना का संदेश दिया गया। पारंपरिक मिथिला रीति अनुसार अतिथियों का स्वागत पाग-चादर, माला और स्मृति चिहतों से हुआ।


सम्मानों की गरिमा
इस वर्ष के दो प्रमुख सम्मान-
1. सद्गृहस्थ संत जगन्नाथ चौधरी शोध पुरस्कार पं. भवनाथ झा
2. वासुदेव-गोविंद काव्य शिरोमणि सम्मान डॉ. चंद्रमणि झा को प्रदान किए गए।
इन सम्मानों में न केवल आर्थिक पुरस्कार (₹11,000 एवं ₹5100) दिए गए, बल्कि मिथिला विजय स्तंभ की छवि से सुसज्जित स्मृति विहन, चांदी की कलम, पारंपरिक पाग-चादर और मान पत्र ने इसे विशिष्टता प्रदान की।
शोध की आवश्यकता पर बल
पुरातत्व एवं पांडुलिपि विशेषज्ञ पं. भवनाथ झा ने अपने प्रेरक भाषण में भारत्तीय परंपरा, संरकृति और साहित्य के गृह पक्षों को संरक्षित करने हेतु शोध की निरंतरता पर बल दिया। उन्होंने अप्रकाशित पांडुलिपियों को सार्वजनिक करने का आहवान करते हुए इसे सांस्कृतिक पुनरुद्धार की दिशा में निर्णायक कदम बताया।
भाषिक और सांगीतिक विमर्श
डॉ. चंद्रमणि दशानन द्वारा प्रस्तुत ‘शिव तांडव स्तोत्र’ का मैविली पद्यानुवाद एक ध्वन्यात्मक काव्यात्मक अनुभव था, जिसमें स्वर और छंद की गरिमा ने वातावरण को अलौकिक बना दिया। साथ ही, डॉ. रंगनाथ दिवाकर द्वारा लिखित हिंदी नाटक ‘प्रवास का प्रथम प्रहर’ महाकवि कालिदास की जीवनयात्रा पर आधारित था, जो कालिदास के मिथिलावासी होने की बात को स्थापित करता है। इस पुस्तकके साथ ही चंद्रमणि के बाल कविता संग्रह ‘सुबोध बाल गीत’ का लोकार्पण भी हुआ।
लोक और विद्वता का समागम
महेंद्र मलंगिया ने लोकगीतों पर आधारित इतिहास लेखन की संभावनाओं पर अपने विचार रखें। उन्होंने कहा कि लोकगीतों पर आधारित ऐतिहासिक विद्वेषण सामाजिक चेतना के महत्वपूर्ण स्रोत हैं और शोध की दिशा में सहायक हो सकते हैं।
कवि सम्मेलनः सांस्कृतिक आत्मा की पुकार
डॉ. नरेश कुमार ‘विकल’ की अध्यक्षता में आयोजित कवि सम्मेलन ने थोताओं के मन में भाषा और संस्कृति के प्रति गहरा भाव भर दिया। ची शंकर मधुपांश की कविता ‘सुनह प्रवासी’ ने प्रवासी मैथिलों की पीड़ा को स्वर दिया –
> “मेटा जेतौ पहिचान तोहर रे माथ उठेबै फेर कोना?”
श्री प्रीतम कुमार ‘निषाद’ की कविता ब्रह्मांडीय रहस्यों और सृष्टि के गृह पक्षों की भावनात्मक व्याख्या थी।
> “हमरे जकों एहि लोकमे सभ तत्त्व रचना भऽ गेलै।”
डॉ. महेंद्र नारायण राम की कविता ‘एसरी’ ने लोक संस्कृति और शिष्ट संस्कृति के बीच सेतु और समन्वय का कार्य किया। मिथिला की धार्मिक, प्राकृतिक और दार्शनिक चेतना का अद्भुत संगम उनकी पंक्तियों में दिखाई दिया।
हास्य, करुणा और समकालीनता
सुरेंद्र शैल की कोविड जनचेतना पर आधारित हास्य कविता ‘एक सारिक पाती’ ने गंभीर विषय को सरल और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया-
> “अपने घरमे रहियौ अखन पहना
> महि पसरल करोना विकट पहुना।”
वहीं, चंद्रमणि की कविता ‘मन रे बनि पवन बहय मिथिला मधुवनमे ने मिथिला की सांस्कृतिक आत्मा को सजीव किया। श्री श्याम बिहारी राय ‘सरस’ की वंदना और ‘मिविला वर्णन’ का पाठ मिथिला गौरव का प्रतीक बन गया।
असम दंगों की संवेदना
डॉ. विक्ल द्वारा असम के दंगों के कारण अपने प्रवासी पति की चिन्ता पर पत्री की पीड़ा और वापसी के आह्वान पर रचित कविता ने करुणा, मात्सर्य और व्यथा का सम्मिलित चित्र प्रस्तुत किया-
> “पहुना, कहुनाके चलि आउ अपन गाम
> आब ने रहि गेलै एहन असाम।”
यह कविता प्रवासी भारतीयों के अंतद्वंद्व और असुरक्षा की मनोस्थिति को पूरी ईमानदारी से सामने लाती है।
विशिष्ट अतिथियों और सम्मान
कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथियों में थी श्यामा नंद चौधरी, नंदमोहन दास, कृष्ण मुरारी जा, सिमर फिल्म्स के सुमित सुमन और फ़िल्मकार के एन मंडल को सम्मानित किया गया। कार्यक्रम संचालन की जिम्मेदारी साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार विजेता श्री दीप नारायण ने अत्यंत कुशलता से निभाई।
समापनः संवेदना और बद्धांजलि
कार्यक्रम के अंत में जम्मू-कश्मीर की पहलगाम घाटी में निर्दोष पर्यटकों की नृशंस हत्या पर शोक व्यक्त किया गया। उपस्थितजनों ने हताहत हुए भारतीयों के सम्मान में अपनी पगड़ियों उतार कर एक मिनट का मौन रखा। इसके बाद, पारंपरिक भोज के साथ ही समारोह का समापन हुआ।
यह सम्मेलन न केवल एक पुण्य-पर्व पर आयोजित था, बल्कि भारतीय संस्कृति, भाषा, शोध, और संवेदना का उत्सव भी रहा। इसमें जहाँ एक ओर प्राचीन पांडुलिपियों की बात हुई, वहीं आधुनिक शोध, लोक संस्कृति और राजनीतिक पीड़ा पर भी गंभीर विमर्श हुआ। संत जगन्नाथ चौधरी की स्मृति में आयोजित यह आयोजन वास्तव में मैथिली और भारतीय सांस्कृतिक चेतना को समर्पित रहा।