Bihar Politics – Assembly Elections 2025 : बिहार की राजनीति में चिराग पासवान का सफर एक ऐसा उदाहरण है, जिसमें महत्वाकांक्षा, रणनीति और परिस्थितियों का मिश्रण देखने को मिलता है। 2024 लोकसभा चुनाव में लोजपा (रामविलास) ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 5 में 5 सीटें जीतीं। लेकिन जब बात बिहार विधानसभा की आती है, तो चिराग की पार्टी की स्थिति बिल्कुल उलट दिखती है—एक भी विधायक नहीं।
विधानसभा में चिराग का स्कोर शून्य है। उनका एकमात्र विधायक राजकुमार सिंह 2021 में जेडीयू में शामिल हो गया। ऐसे में सवाल उठता है — क्या इसी कारण चिराग के सुर नीतीश कुमार के प्रति अब नरम हो गए हैं?
नीतीश की तारीफ में चिराग क्यों?
वहीं चिराग पासवान, जो कभी नीतीश सरकार को अपराध और जंगलराज के लिए कठघरे में खड़ा करते थे, अब उनके लिए कसीदे पढ़ते दिख रहे हैं। हाल ही में उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार अगले पांच वर्षों तक मुख्यमंत्री पद के लिए पूरी तरह सक्षम हैं और बिहार को उनके जैसे अनुभवी नेतृत्व की जरूरत है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि नीतीश कुमार ने बिहार को जंगलराज से निकालकर विकास के पथ पर अग्रसर किया है।
यह बदलाव सिर्फ सामान्य सियासी शिष्टाचार नहीं, बल्कि रणनीतिक सोच का हिस्सा माना जा रहा है।
बदले सुर के पीछे 2020 की सीख?
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने अकेले दम पर लड़ने का फैसला किया था। एनडीए में सीट बंटवारे से असंतुष्ट चिराग ने केवल जेडीयू के उम्मीदवारों के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतारे, ताकि बीजेपी को नुकसान न पहुंचे, लेकिन इसका परिणाम निराशाजनक रहा।
135 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली लोजपा (रामविलास) को सिर्फ 5.66% वोट मिले और 110 सीटों पर जमानत जब्त हो गई। एकमात्र सीट पर जीत मिलने के बाद भी पार्टी अंदर से बिखर गई और 2021 में दो गुटों में बंट गई। चिराग के चाचा पशुपति पारस अलग गुट बना बैठे।
इस अनुभव ने चिराग को स्पष्ट रूप से यह सिखाया कि बिहार की राजनीति में अकेले चलना आसान नहीं, खासकर विधानसभा चुनाव में।
नीतीश की रणनीति, चिराग की मजबूरी
चुनावी साल में नीतीश कुमार ने ‘डोमिसाइल नीति’ लागू कर चिराग के ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ नारे को ही हथियार बना लिया। शिक्षक बहाली में सिर्फ बिहार के स्थायी निवासियों को ही पात्र मानने का निर्णय, चिराग की प्राथमिकता को नीतीश द्वारा अपनाए जाने जैसा दिखा।
विशेषज्ञ मानते हैं कि नीतीश के साथ रहना ही चिराग के लिए अधिक सुरक्षित विकल्प है। यदि वे फिर से एनडीए से अलग होते हैं, तो इसका असर 2020 से भी खराब हो सकता है। जेडीयू से दूरी का मतलब है एनडीए से दूरी और अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी से भी।
साथ रहना ही मजबूरी?
चिराग पासवान को अब समझ में आ गया है कि लोकसभा चुनावों की तरह विधानसभा चुनाव अकेले नहीं लड़े जा सकते। एनडीए के भीतर रहकर ही उन्हें राजनीतिक अस्तित्व की गारंटी मिल सकती है।
राजनीति में विचारधारा से अधिक व्यवहारिकता मायने रखती है और फिलहाल चिराग पासवान उसी राह पर चलते नजर आ रहे हैं। नीतीश की तारीफ में उनका बदला-बदला रुख इसका प्रमाण है कि वे आने वाले विधानसभा चुनाव में सुरक्षित दांव खेलना चाहते हैं।