कविता

मैं मजदूर हूँ – एन मंडल

कविता

मैं मजदूर हूँ 
मैं मजदूर हूँ

हर साल मई की पहली सुबह,
जब दुनिया मुझे याद करती है,
कुछ पन्नों पर नाम मेरा लिखा जाता है,
मगर हकीकत में आज भी,
मेरे हिस्से सिर्फ पसीना आता है।

जब शहर से गांव लौटता हूँ,
तो जैसे किसी कैदी को रिहाई मिलती है,
रेल की सीटी के संग-संग
दिल में गांव की यादें खिलती हैं।
माँ की आवाज फोन पर जब पूछती है,
“कहाँ पहुँचा बेटा?”
तो दिल करता है उड़कर पहुँच जाऊं
उस आंगन में, उस माटी में।

स्टेशन पर उतरते ही
हवा गले मिलती है मुझसे,
सफर की सारी थकान,
जैसे पटरियों पर ही छूट जाती है।
गांव की पगडंडियाँ,
कच्ची-पक्की सड़कें,
रास्ते के पेड़, खेत, नदियाँ,
जैसे सब मुझे पहचानते हैं।

घर पहुँचते ही
माँ की आंखों में चमक होती है,
“बेटा, रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई?”
फिर माँ के हाथों का बना खाना,
जिसका स्वाद,
किसी फाइव स्टार होटल से कहीं ऊंचा होता है।

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क्यों होता है प्रवासी को गांव से इश्क?
क्योंकि,
शहर भले सपने और अवसर दे,
सुकून तो बस मिट्टी में मिलता है।

हाँ, मैं मजदूर हूँ —
अपना कर्म पूजा मानता हूँ,
लहू खौलाता हूँ धूप में,
पसीने की बूंदों से धरती सींचता हूँ।

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कभी मंदिर, कभी मस्जिद,
कभी कारखाने, कभी दफ्तर,
कभी सपनों के घर बनाता हूँ,
और फिर चुपचाप आगे बढ़ जाता हूँ।

मुझे फर्क नहीं पड़ता
किसके लिए महल खड़ा कर रहा हूँ,
किसके लिए इमारत चमका रहा हूँ,
क्योंकि मैं जानता हूँ —
मैं मजदूर हूँ,
मैं सिर्फ अपना कर्म निभाता हूँ।

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हाँ, मैं मजदूर हूँ —
इस माटी का बेटा,
जो ख्वाब भी बोता है,
और इमारतें भी।

© N Mandal – एन मंडल, मुंबई/बिहार.

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