पटना : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने इस बार राजनीति की ज़मीन पर एक नया दृश्य प्रस्तुत किया है। जहां पुराने चेहरे अपनी साख बचाने की जद्दोजहद में हैं, वहीं पाँच ऐसी महिलाएँ भी मैदान में हैं जो न किसी राजनीतिक खानदान से आती हैं, न किसी पार्टी के बड़े नेता की शागिर्द हैं। इनके पास है तो केवल संघर्ष, अपने बूते आगे बढ़ने का जज़्बा और समाज से जुड़ने का संकल्प।
इन महिलाओं का उदय बिहार की राजनीति में एक नई सुबह, एक नई परिभाषा लेकर आया है—जहाँ विरासत नहीं, बल्कि मेहनत और जनसेवा का सफ़र पहचान बनता है।
1. दिव्या गौतम (Divya Gautam) — “मेरा संघर्ष ही मेरी पहचान है”
पटना की दीघा विधानसभा सीट से भाकपा-माले प्रत्याशी दिव्या गौतम इस बार राजनीति की नई उम्मीद के रूप में उभर रही हैं। थिएटर आर्टिस्ट, पूर्व पत्रकार और छात्र राजनीति से निकली दिव्या ने समाज के मुद्दों को न केवल देखा है, बल्कि जीया भी है।
अक्सर मीडिया उन्हें दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की बहन के रूप में प्रस्तुत करता है, मगर दिव्या साफ कहती हैं —
“मेरा संघर्ष मेरी पहचान है, रिश्ता नहीं।”
दिव्या का प्रचार अभियान बाकी उम्मीदवारों से बिलकुल अलग है। उनका कैंपेन सॉन्ग “परिवर्तन की लहर” सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है। बेरोजगारी, शिक्षा, बाढ़ और महिला सुरक्षा उनके प्रमुख मुद्दे हैं।
दीघा सीट पर भाजपा के संजीव चौरसिया और जन सुराज समर्थित उम्मीदवार के बीच मुकाबला त्रिकोणीय होता दिख रहा है। कायस्थ और पिछड़े वर्ग के मतदाताओं में नाराजगी का फायदा दिव्या को मिल सकता है। वह केवल एक प्रत्याशी नहीं, बल्कि युवा बिहार की आवाज़ बनकर उभर रही हैं — जहाँ राजनीति नहीं, समाजसेवा उनका लक्ष्य है।
2. ऋतु जायसवाल (Ritu Jaiswal) — परिहार की विद्रोही महिला
सीतामढ़ी जिले की परिहार विधानसभा सीट इन दिनों पूरे बिहार का केंद्र बन चुकी है। कारण हैं – निर्दलीय उम्मीदवार ऋतु जायसवाल।
कभी राजद महिला प्रकोष्ठ की प्रदेश अध्यक्ष रहीं ऋतु ने तब पार्टी छोड़ दी जब टिकट के बंटवारे में उन्हें दरकिनार कर दिया गया। उन्होंने खुलकर कहा —
“मैं टिकट के लिए नहीं, महिलाओं के सम्मान के लिए लड़ रही हूँ।”
ऋतु जायसवाल का राजनीति में सफर किसी फ़िल्मी कहानी से कम नहीं। उन्होंने अपने गांव सिंहवाहिनी में पंचायत प्रमुख रहते हुए स्कूल, सड़क, स्वच्छता और महिला स्व-सहायता समूहों के लिए जो काम किया, वह पूरे राज्य में मॉडल के रूप में देखा गया। 2020 के चुनाव में वे महज डेढ़ हजार वोटों से हारीं, लेकिन जनता के दिलों में जगह बना ली।
इस बार वे स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रही हैं। यादव, धानुक, कुर्मी, बनिया और मुस्लिम मतदाताओं के बीच उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है। परिहार सीट पर एनडीए और महागठबंधन दोनों ही गंभीर चुनौती में हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर तेजस्वी यादव तक यहाँ प्रचार करने पहुँचे हैं।
ऋतु की पहचान अब एक “विद्रोही महिला नेता” के रूप में हो रही है, जिसने कहा है कि —
“अगर पार्टी रास्ता रोक दे, तो जनता खुद राह बना देती है।”
3. मैथिली ठाकुर (Maithili Thakur) — मिथिला की बेटी, सियासत की नई आवाज़
संगीत की दुनिया से निकली 25 वर्षीय मैथिली ठाकुर अब राजनीति की सबसे युवा उम्मीदवार के रूप में सुर्खियों में हैं। दरभंगा जिले की अलीनगर सीट से भाजपा ने उन्हें प्रत्याशी बनाया है।
“मिथिला की बेटी” के रूप में पहचानी जाने वाली मैथिली को किसी गॉडफादर की ज़रूरत नहीं पड़ी — उनके पास था संगीत का वरदान और लोगों के दिलों में जगह। उनके लोकगीत “मिथिला का मैग्नेटो” और “बिहार के बेटा-बेटी” ने उन्हें घर-घर जाना-पहचाना चेहरा बना दिया।
अलीनगर में ब्राह्मण-यादव समीकरण हमेशा निर्णायक रहा है। भाजपा का यह प्रयोग युवाओं और महिलाओं को जोड़ने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। मैथिली कहती हैं —
“मैं नेता नहीं, अपने गाँव की बेटी हूँ। मुझे बस लोगों के सपने पूरे करने हैं।”
उनका प्रचार सांस्कृतिक और भावनात्मक दोनों है — कहीं वे लोकगीत गाती हैं, तो कहीं शिक्षा और रोज़गार पर बात करती हैं। गांव-गांव में लोग उन्हें देखते हुए कहते हैं, “देखू, मिथिला की बेटी राजनीति में आइ गेल छै।”
उनका सफर साबित करता है कि राजनीति में लोकप्रियता से ज़्यादा महत्वपूर्ण है नीयत और नज़दीकी।
4. छोटी कुमारी (Chhoti Kumari) — सादगी से सियासत तक
सारण जिले की छपरा विधानसभा सीट से भाजपा की युवा प्रत्याशी छोटी कुमारी राजनीति में सादगी की मिसाल हैं। 35 वर्षीय छोटी किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आतीं। उन्होंने समाजसेवा, महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण रोजगार के लिए लगातार काम किया है।
‘महिलाओं की रचनात्मकता’ पर आधारित उनके प्रोजेक्ट को स्विट्जरलैंड के एक संगठन से सम्मान भी मिल चुका है। यह उपलब्धि उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाती है, पर उन्होंने कभी इसका प्रचार नहीं किया।
भाजपा ने उन्हें एक “फ्रेश फेस” के रूप में चुना है। छोटी का कहना है —
“मैं इस क्षेत्र की बेटी और बहन बनकर काम करना चाहती हूँ, नेता नहीं।”
उनकी टीम में ज़्यादातर युवा और महिलाएँ हैं, जो “घर-घर संवाद अभियान” चला रही हैं। उनके प्रचार में कोई बड़ा मंच नहीं, कोई हाईवोल्टेज शो नहीं — बस लोगों के बीच सादगी और भरोसे का रिश्ता है।
छोटी कुमारी की पहचान अब बिहार की नई राजनीति की प्रतीक के रूप में हो रही है — जहाँ सियासत सेवा का दूसरा नाम है।
5. इंदू गुप्ता (Indu Gupta) — जन सुराज की नई उम्मीद
समस्तीपुर जिले की हसनपुर विधानसभा सीट पर इंदू गुप्ता जन सुराज पार्टी से चुनाव लड़ रही हैं। वे उस राजनीति की प्रतिनिधि हैं जो जनसेवा की मिट्टी से जन्म लेती है, न कि सत्ता की कुर्सियों से।
40 वर्षीय इंदू ने पिछले डेढ़ दशक से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता पर काम किया है। वे हजारों महिला SHG (Self Help Groups) से जुड़ी रही हैं और हर पंचायत में जाकर उन्हें संगठित किया है।
प्रशांत किशोर की जन सुराज यात्रा से प्रभावित होकर उन्होंने राजनीति को सेवा का साधन बनाया। उनका कहना है —
“अगर गाँव बदलेगा, तभी बिहार बदलेगा।”
इंदू का प्रचार अभियान अनूठा है — वे मंचों पर भाषण नहीं, बल्कि महिलाओं की चौपालों में जाकर संवाद करती हैं। छोटे-छोटे समूहों में बैठकर वह कहती हैं, “हमारी आवाज़ अब किसी और के भरोसे नहीं रहेगी।”
हसनपुर सीट पर एनडीए, महागठबंधन और जन सुराज के बीच मुकाबला त्रिकोणीय है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में इंदू की ईमानदार छवि उन्हें अलग पहचान दे रही है।
बिना गॉडफादर की राजनीति — बिहार की नई दिशा
इन पाँचों महिलाओं में एक बात समान है — साहस और आत्मनिर्भरता।
इनका उदय यह संदेश देता है कि अब राजनीति में सिर्फ वंशवाद या ‘गॉडफादर’ का युग नहीं रहेगा। बिहार जैसे राज्य में जहाँ दशकों तक जातीय समीकरण और पारिवारिक विरासत हावी रही, वहाँ अब महिलाएँ खुद अपनी राह बना रही हैं।
दिव्या गौतम अपने विचारों की धार से बदलाव की आंधी ला रही हैं, ऋतु जायसवाल अपनी बगावत से सत्ता को चुनौती दे रही हैं, मैथिली ठाकुर अपनी आवाज़ से मिथिला का मान बढ़ा रही हैं, छोटी कुमारी सादगी को सियासत का हथियार बना रही हैं और इंदू गुप्ता जन आंदोलन से नई राजनीति गढ़ रही हैं।
भविष्य की राजनीति — संवेदना, संघर्ष और संकल्प
बिहार की यह नई राजनीति महज़ वोटों की गणना नहीं, बल्कि भावनाओं का परिवर्तन है। अब जनता केवल वादों से नहीं, विश्वास और जुड़ाव से उम्मीदवार चुन रही है।
अगर ये महिलाएँ जीतती हैं, तो यह सिर्फ पाँच सीटों की जीत नहीं होगी, बल्कि उस सोच की विजय होगी जिसमें राजनीति सेवा, समानता और स्वाभिमान का पर्याय बनती है।
और अगर हारती भी हैं, तो भी हार नहीं — क्योंकि उन्होंने बिहार की राजनीति में वह बीज बो दिया है जो आने वाले समय में महिला नेतृत्व की फसल बनकर उगेगा।
बिहार की मिट्टी से निकली ये बेटियाँ आज बता रही हैं —
“हम किसी की छाया नहीं, खुद अपनी पहचान हैं।”
इन महिलाओं की यात्राएँ दिखाती हैं कि बिहार अब धीरे-धीरे वंशवाद से बाहर आ रहा है। राजनीतिक विरासत की जगह सामाजिक कार्य, शिक्षा, और जनता से जुड़ाव का महत्व बढ़ रहा है। बिहार की राजनीति का यह चेहरा उम्मीद जगाता है — एक ऐसी राजनीति की, जो “जनता के बीच से” शुरू होकर “जनता के लिए” खत्म होती है।




