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संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर को महापरिनिर्वाण दिवस पर नमन

संविधान के शिल्पी, सामाजिक न्याय के महान सूत्रधार — बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को श्रध्दा में नमन

हर साल की तरह इस बार भी महापरिनिर्वाण दिवस पर हम सादर नमन करते हैं उन महान पुरुष को जिनकी बुद्धिमत्ता, दृढ़ता और बलिदान ने आधुनिक भारत की अस्मिता और सामाजिक न्याय की नींव को आकार दिया — ‘भारत रत्न’ डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर। 6 दिसंबर का यह दिन केवल एक स्मृति-दिवस नहीं; यह हमें उनके जीवन-कार्य, उनकी विचारधारा और उन आदर्शों की ओर लौटने का आग्रह है जिनके लिए उन्होंने समूचा जीवन समर्पित किया।

डॉ. अंबेडकर का जीवन संघर्षों और सिद्धांतों की कहानी है। 14 अप्रैल 1891 को एक मध्यवर्गीय अमान्यजातीय परिवार में जन्मे बाबासाहेब ने बचपन से ही जातिगत भेदभाव और सामाजिक उपेक्षा का अनुभव किया। फिर भी शिक्षा के प्रति उनकी आस्थागत लगन ने उन्हें ब्रिटेन और अमेरिका तक पहुँचाया — कड़े अध्ययन, शोध और वैचारिक तैयारी ने उन्हें उस मुकाम पर पहुँचाया जहाँ से वे पूरे राष्ट्र के लिए संविधान रचने का सामर्थ्य रखते थे।

उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि निस्संदेह स्वतंत्र भारत का संविधान है। संविधान सिर्फ कागजी नियमों का संग्रह नहीं; यह एक सामाजिक अनुबंध है — समानता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय के सिद्धांतों का प्रतिक। डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में अपने भाषणों और बहसों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया कि संविधान केवल राज्य की मशीनरी का निर्देशिका न रहे, बल्कि समाज के शोषित, हाशिये पर पड़े और उपेक्षित तबकों के लिए संवैधानिक सुरक्षा का आधार बने। आरक्षण, समान नागरिक अधिकार, धार्मिक-अधिकार और न्यायिक सुरक्षा जैसे प्रावधानों के पीछे उनकी दूरदर्शिता स्पष्ट नज़र आती है।

सामाजिक न्याय उनके जीवन का मूलमंत्र था। शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध उनका संघर्ष व्यक्तिगत आक्रोश का परिणाम नहीं था, बल्कि एक वैचारिक अभियान था — जिसे वे विद्वता, संगठन और कानून के माध्यम से अंजाम देना चाहते थे। अस्पृश्यता के विरुद्ध उनका आंदोलन, दलितों के लिये राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण का मार्ग खोलने वाला था। वे केवल प्रताड़ना का वर्णन नहीं करते थे; वे समाधान प्रस्तुत करते थे — शिक्षा का महत्व, आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक भागीदारी और कानूनी अधिकार।

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शिक्षा के प्रति उनका विश्वास अटल था। बाबासाहेब मानते थे कि शिक्षा ही दलितों और उपेक्षित समुदायों को अपने अधिकार प्राप्त कराने की सबसे प्रभावी चाबी है। इसलिए उन्होंने संस्थागत शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ और सामाजिक जागरण पर विशेष जोर दिया। वे जानते थे कि ज्ञान ही स्वाभिमान और स्वावलंबन को जन्म देता है। इसी विचार से उन्होंने अनेक बार शिक्षाविदों, छात्रों और युवा राष्ट्रीय नेताओं को मार्गदर्शन दिया।

आर्थिक न्याय भी उनके चिंतन का केंद्र रहा। अंबेडकर ने न केवल सामाजिक विभाजन पर बल दिया बल्कि यह भी समझा कि आर्थिक असमानता का अंत किए बिना सामाजिक समानता अधूरी रहेगी। उन्होंने आर्थिक नीतियों, भूमि सुधार और सामाजिक सुरक्षा के सिद्धांत पर विचार किया, ताकि समाज के कमजोर तबकों को वास्तविक स्वावलंबन मिल सके।

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धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा। बहुतेरी बार उन्होंने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक पुनर्मूल्यांकन और सतर्क आलोचना के बिना समाज के बंदरसंटानों का विमोचन संभव नहीं। उन्होंने दलितों और वंचितों के लिये धार्मिक स्वतंत्रता और आत्म-समर्पण के विकल्पों पर भी लिखा और गौर किया कि किस प्रकार धार्मिक अभ्यास और सामाजिक विभाजन एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं।

बाबासाहेब अंबेडकर की शैली साफ़, तार्किक और निर्णायक थी। वे केवल आलोचक नहीं थे; वे क्रांतिकारी विचारों के साथ व्यवहारिक नीतियाँ भी सुझाते थे। अपने लेखन और वक्तव्यों में वे न्याय, समानता और कानून की भाषा का प्रयोग करते थे — जो आम जनता तक पहुँचना सरल और प्रभावशाली बनाती थी।

महापरिनिर्वाण दिवस न सिर्फ उनके स्मरण का दिन है, बल्कि हमें यह परखने का अवसर देता है कि क्या हम उनके दिखाए रास्ते पर चलते हुए सामाजिक असमानताओं को कम करने में सफल रहे हैं? क्या संविधान के आदर्श केवल कागज पर ही रह गये हैं या जीवन के हर पहलू में समावेशी न्याय का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं? आज के समय में जब आर्थिक विषमता, जातिगत भेदभाव और सामाजिक विभाजन के मुद्दे अभी भी प्रासंगिक हैं, बाबासाहेब के विचारों और उनके द्वारा निर्धारित नीतिगत दृष्टिकोणों पर लौटना आवश्यक है।

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हमारे लिए यह दिन कुछ ठोस प्रणालियाँ अपनाने का भी स्मरण कराता है — शिक्षा हेतु व्यापक पहुँच सुनिश्चित करना, सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत बनाना, कानूनी जागरूकता के कार्यक्रम चलाना और समानता के सिद्धांतों को रोज़मर्रा की नीतियों में साक्षात करना। साथ ही, सांस्कृतिक स्तर पर सहिष्णुता को बढ़ावा देना और भेदभाव के विरुद्ध सामूहिक रूप से खड़े होना भी उतना ही आवश्यक है।

अंत में, बाबासाहेब अंबेडकर का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि महान नेतृत्व केवल रुतबे और पद से नहीं आता — वह सत्य की आवाज़, साहस और अनवरत प्रयास का परिणाम होता है। उनका जीवन बताता है कि संरचनात्मक बदलाव दृढ़ संकल्प, संगठित प्रयास और बौद्धिक स्पष्टता के बिना संभव नहीं।

आज, जब हम डॉ. भीमराव अंबेडकर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो आइए उनके आदर्शों को केवल स्मरण-स्तरीय न रखें। उन्हें अपने जीवन, नीतियों और सामाजिक व्यवहार में सक्रिय रूप से उतारें — शिक्षा को सशक्त बनाकर, न्याय की आवाज़ बनकर, और समता के पथ पर असल कदम उठाकर। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी — नमन, और प्रतिबद्धता।

Gaam Ghar Desk

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