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मिथिला में विवाह सौदा नहीं, संस्कार था: पंजी प्रथा से सप्तपदी तक विरासत

जब आज शादी बाजार बन चुकी है, मिथिला की प्राचीन विवाह व्यवस्था हमें संतुलन और मर्यादा सिखाती है।

फिल्मकर एन मंडल व पत्नी भगवान दाई देवी साल 2003 शादी का फोटो
फिल्मकार एन. मंडल और भगवान दाई देवी, वर्ष 2003 में हुए विवाह का एक दुर्लभ चित्र।

विशेष फीचर | एन. मंडल
Gaam Ghar : आज देश के अधिकतर हिस्सों में विवाह एक इवेंट इंडस्ट्री बन चुका है—भव्य मंच, सोशल मीडिया रील्स और खर्चीले पैकेज। लेकिन मिथिला में विवाह कभी दिखावे का उत्सव नहीं रहा, वह संस्कार था। यहाँ शादी केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो कुलों, सामाजिक मर्यादाओं और भविष्य की जिम्मेदारियों का मिलन मानी जाती थी।
मिथिला की पुरानी विवाह प्रणाली इतनी सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक थी कि आधुनिक समाज आज भी उससे सीख सकता है। पंजी प्रथा, कोहबर, कन्यादान और सप्तपदी—ये केवल रस्में नहीं, बल्कि समाज को संतुलित रखने की प्रणाली थीं।

पंजी प्रथा: जब शादी से पहले विज्ञान देखा जाता था

मिथिला की विवाह प्रणाली की सबसे मजबूत कड़ी थी पंजी प्रथा
हर परिवार की वंशावली, गोत्र और प्रवरा पंजी में दर्ज होती थी। विवाह से पहले पंजीकार से मिलकर पंजी शुद्धि कराई जाती थी।

इस व्यवस्था का उद्देश्य स्पष्ट था—
सगोत्र विवाह से बचाव
रक्त संबंधों में विवाह निषेध
सामाजिक संतुलन की रक्षा

आज जिसे आधुनिक विज्ञान genetic compatibility कहता है, मिथिला ने उसे सामाजिक नियम बना दिया था।

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फोटो सभार मैथिलि जिंदाबाद

मिथिला में कौन-कौन से विवाह स्वीकार्य थे

मिथिला समाज में सभी विवाह समान नहीं माने जाते थे।
यहाँ केवल श्रेष्ठ और मर्यादित विवाह को सामाजिक स्वीकृति थी।

  • ब्रह्म विवाह – सर्वोत्तम, बिना लेन-देन
  • दैव विवाह – धार्मिक सेवा के साथ
  • आर्ष विवाह – प्रतीकात्मक उपहार के साथ

गंधर्व और राक्षस विवाह को समाज में मान्यता नहीं थी।

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पेंटिंग सभार folkartopedia / Classic Khobar on wall, Photo by W.G. Archer. India, Madhubani District, 1935.

कोहबर: जहाँ दीवारें नहीं, स्त्री बोलती है

मिथिला विवाह में कोहबर केवल सजावट नहीं है।
कोहबर गृह की चित्रकला स्त्री की भावनाओं, आशाओं और जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति है।

प्रकृति, उर्वरता और दांपत्य संतुलन के प्रतीक रंगों और आकृतियों में ढले होते हैं—
यह स्त्री की मौन भाषा है।

फोटो सभार आज तक

कन्यादान और सप्तपदी: सबसे गलत समझी गई रस्में

मिथिला में कन्यादान का अर्थ “कन्या को बोझ समझकर देना” नहीं, बल्कि उसे समान धर्म और अधिकार के साथ सौंपना है।

सप्तपदी यहाँ सात फेरे नहीं, बल्कि सात संकल्प हैं—
अन्न, बल, संपत्ति, सुख, संतान, ऋतु और मित्रता।

इसी के साथ विवाह पूर्ण माना जाता है।

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फोटो सभार दैनिक भास्कर

विवाह गीत: समाज की सामूहिक संवेदना

सोहर, समदाउन और विदाई गीत केवल लोकगीत नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक भावनाएँ हैं।
इनमें:

  • स्त्री का दुःख
  • परिवार की चिंता
  • नए जीवन की स्वीकृति

तीनों एक साथ व्यक्त होते हैं।

आधुनिक दौर में मिथिला विवाह कहाँ खड़ा है

आज:

  • पंजी प्रथा लगभग समाप्त
  • विवाह में खर्च और दिखावा बढ़ा
  • पर कोहबर, कन्यादान और सप्तपदी अब भी जीवित

यही बताता है कि मिथिला की परंपराएँ पूरी तरह टूटी नहीं हैं।

मिथिला की विवाह प्रणाली हमें यह याद दिलाती है कि
संस्कार कभी पुराने नहीं होते, केवल उपेक्षित हो जाते हैं।

जब समाज फिर संतुलन खोजेगा, तो उसे मिथिला की ओर देखना पड़ेगा—
जहाँ विवाह उत्सव नहीं, जीवन दर्शन था।

Gaam Ghar Desk

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