अतिक्रमण आज भारत की शहरी और ग्रामीण दोनों व्यवस्थाओं की एक ऐसी गंभीर, जटिल और बहुआयामी समस्या बन चुका है कि सड़कों, फुटपाथों, नालों, तालाबों, सरकारी भूमि, सार्वजनिक भवनों और हरित क्षेत्रों पर अवैध कब्ज़ा केवल सरकार की प्रशासनिक विफलता का परिणाम नहीं है, बल्कि यह शासन-नीति, राजनीतिक संरक्षण, सामाज की सामाजिक असमानता और आर्थिक विवशताओं का संयुक्त प्रतिफल है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि इस पूरे तंत्र की सबसे बड़ी शिकार आम जनता बनती है, जिसकी न कोई आवाज़ सुनी जाती है और न ही उनके अधिकारों की रक्षा होती है।
अतिक्रमण विषय पर गम्भीरता पूर्वक चिंतन करने पर ये प्रमुख कारण निकल कर सामने आती है। बेरोजगारी और गरीबी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर बढ़ते पलायन ने आवास, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं पर इस तरह से असहनीय दबाव डाला है कि नियोजन के अभाव में लोग मजबूरीवश सार्वजनिक भूमि पर आश्रय बनाने को विवश हो जाते हैं। कहीं-कहीं तो अतिक्रमण को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। अवैध कब्ज़े “वोट बैंक” में बदल जाते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्रवाई जानबूझकर शिथिल कर दी जाती है।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार और उदासीनता
प्रशासन चाह ले तो अतिक्रमण नहीं होंगे इसलिए स्थानीय स्तर पर अतिक्रमण बिना मिलीभगत के संभव नहीं। रिश्वत, फाइलों का दबना और चयनात्मक कार्रवाई व्यवस्था की साख को कमजोर करती है। स्पष्ट भूमि अभिलेख और नीति का अभाव भूमि रिकॉर्ड की अस्पष्टता, डिजिटलीकरण में देरी और कानूनी जटिलताएँ अतिक्रमण को बढ़ावा देती हैं।
गरीबी और रोजगार की असुरक्षा के कारण:गरीब जनता फुटपाथी दुकानदार, ठेलेवाले और असंगठित क्षेत्र के श्रमिक जीविका के लिए सार्वजनिक स्थानों पर निर्भर रहते हैं जो सत्य है लेकिन इसमें मुझे यह अतिक्रमण नहीं, बल्कि जीवित रहने की विवशता का प्रतीक जान पड़ती है। कानूनी दृष्टिकोण: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-21 नागरिकों को गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार देता है, वहीं अनुच्छेद 300-A संपत्ति के अधिकार की रक्षा करता है।
वहीं दुसरी ओर: नगरपालिका अधिनियम,राजस्व संहिता,सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णय से स्पष्ट हैं कि सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण करना कानूनी तौर पर अवैध है किंतु सरकार द्वारा बिना पुनर्वास की व्यवस्था किये,जनसेवा और मानवीय दृष्टिकोण से बलपूर्वक हटाना भी न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है।
माननीय न्यायालय ने बार-बार कहा है कि “कानून का पालन आवश्यक है, परंतु ये नहीं कहे है कि मानव गरिमा की कीमत को ताक पर रख कर नहीं।” सरकारी निष्क्रियता और दोहरी नीति की बात करें तो सरकारों की नीति अक्सर दोहरे मापदंड अपनाती है कैसे इसे जानने का प्रयास करते है।
एक ओर निसहय,गरीबों का झुग्गी-झोपडड़ी तुरंत तोड़ा जाता है लेकिन वहीं दुसरी ओर अमीर प्रभावशाली वर्ग के अवैध निर्माण वर्षों तक वैध बने रहते हैं अर्थात उनपर करवाई में देरी या होती ही नहीं है। देखने-सुनने को यह भी मिलते है कि अतिक्रमण हटाओ अभियान तब ही सक्रिय रहते हैं जब तक माननीय न्यायालय का दबाव हो या मीडिया में मुद्दा उछले जाये। अन्यथा प्रशासनिक तंत्र मौन साधे रहता है। यह निष्क्रियता न केवल कानून के शासन को कमजोर करती है बल्कि जनता के मन में राज्य के कानून,संविधान के प्रति अविश्वास भी पैदा करती है।
आम जनता पर पड़ने वाला प्रभाव जैसे यातायात जाम, दुर्घटनाएँ और प्रदूषण,नालों पर कब्ज़े से जलभराव और महामारी,सार्वजनिक स्थलों का सिकुड़न से वे जनता जो ईमानदार करदाता और नागरिक स्वयं को असहाय महसूस करता है।
सबसे बड़ी और वास्तविक विडंबना यह है कि जो नियमों का पालन करता है वही सबसे अधिक परेशान होता है।
इस समस्या से निजात के निम्नलिखित समाधान हो सकते है:-
1) संतुलन और संवेदनशीलता की आवश्यकता है।
2) स्पष्ट और पारदर्शी भूमि नीति बने और शत-प्रतिशतलागू हो।
3) डिजिटलीकृत भूमि रिकॉर्ड और समयबद्ध विवाद निपटारा पर जोर दिया जाये।
4) पुनर्वास-आधारित अतिक्रमण हटाओ नीति पर सरकार नीति बनाये।
5) जीविका से जुड़े अतिक्रमण के लिए वैकल्पिक व्यवस्था अनिवार्य किया जाये।
6) राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होकर प्रशासन काम करें।
7) समान कानून तो समान रुप से कार्रवाई हो ताकि गरीब और अमीर—दोनों के लिए एक ही नियम आम जनता महसूस करे।
8) सरकार प्रशासन को निर्देशित करे कि जनभागीदारी और सामाजिक संवाद
और समावेश का पलान करके समाधान से निकले। सरकारें इसे केवल बुलडोज़र से हल करने की कोशिश नहीं करे वे जनता मूल कारणों—गरीबी,विवशता,लाचारी पर भी ध्यान दे।
मेरा मानना है कि देश और प्रदेश में सशक्त लोकतंत्र में कानून की सख़्ती और मानवीय संवेदनशीलता साथ-साथ चले ताकि आम जनता को अतिक्रमण के नाम पर होने वाली कार्रवाई भी उन्हें अन्याय न लगे।




